गौरवपूर्ण जीवन और मृत्यु का अधिकार


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माया मरी न मन मरा, मर मर गये शारीर|
आशा तृष्णा सब मरी, कह गये दास कबीर||
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कबीर दास के इस दोहे में जीवन-मृत्यु चक्र के दर्शन का व्यापक भाव व्यक्त होता है| ऐसे तो मृत्यु शास्वत सत्य है, पर यह भी सत्य है की मृत्यु ही मनुष्य का सबसे बड़ा भय है| इतिहास गवाह है, मृत्यु पर विजय पाने हेतु मनुष्य ने हर काल में न न प्रकार के प्रयत्न किये है| जीवन रेखा को लम्बा बनाये रखने हेतु ज्ञान विज्ञान प्रौद्योगिकी द्वारा विश्व में आये दिन नई खोज होती है| ऐसे में क्या इच्छा मृत्यु एक निरर्थक वरदान है| बेहतर स्वास्थय के सुचिकांक हर देश के समग्र विकास के ग्योतक है|
भारत जैसे विकासशील देश भी स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलु उत्पाद का लगभग 5% खर्च करता है|[1]  आजादी (1947) के बाद भारत में life expectancy 35वर्ष थी, और अब सुधर कर लगभग 68वर्ष (2015) है| स्वस्थ्य जीवन सभी का अधिकार है| भारतीय संविधान सभी नागरिकों को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘राईट टू लिव’ का अधिकार भी देता है – जिसके तेहत देश का संविधान प्रत्येक नागरिक को सार्थक, संपूर्ण एवं गौरवशाली जीवन जीने का अधिकार है, और राज्य के लिए इसके संरक्षण को बाध्य है|

राईट टू लाइफ बनाम राईट टू डाई
अब सबसे बड़ा सवाल – क्या मनुष्य को इच्छा से मरने का अधिकार नहीं  है? ‘राईट टू डाई’ की संवैधानिक वैध्यता सर्वप्रथम बॉम्बे हाई कोर्ट के स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम मारुती श्रीपति दुबल केस (1986) में हुई, जब हाई कोर्ट ने IPC की धारा 309 (अपराध आत्मदाह) को असंवैधानिक माना| फिर उच्चतम न्यायालय ने पी.राथिनाम बनाम भारतीय संघ केस (1994) में बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को दोहराया|
किन्तु 1996 में उच्चतम न्यायालय ने गिआन कौर बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब केस में ‘राईट टू लाइफ में राईट टू डाई’ के 1986 के फैसले को रद्द किया| इसी के साथ देश में लाइलाज रोगियों के लिए दया मृत्यु का मसले ने टूल पकड़ा| यह सवाल सबसे चिंताजनक रहा की जिन हालातों में गौरवशाली ‘राईट टू लिव’ संभव न हो क्या तब इच्छा मृत्यु का अधिकार देना ठीक नही होगा| गत मार्च 9, 2018 को उच्चतम न्यायलय ने एक एतिहासिक फैसले में ‘पैसिव यूथेनेसिया’ के कानून को सम्मत बताया|

बहुचर्चित मामले
भारत में इच्छा मृत्यु पर सर्वप्रथम बहस बहुचर्चित ‘अरुणा शानबाग’ केस से हुई| अरुणा मुंबई के एक अस्पताल में नर्स थी, जब 1973 में उनके साथ मार पीट और बलात्कार हुआ जिसके कारण उन्हें गंभीर छोटे आई और उनका शरीर लकवाग्रस्त एवं दिमाग मृत हो चूका था| वर्ष 2009 में अरुणा के लिए दया मृत्यु की याचिका उच्चतम न्यायलय में दायर की गयी| अरुणा 42 साल से अस्पताल में जिंदा लाश जैसे रही और वर्ष 2015 में उनका निधन हुआ|
ऐसे ही वर्ष 2004 में शतरंज खिलाडी के.वेंकटेश मस्कुलर डिसट्रॉफी से पीड़ित हुए और उन्हें 7माह से अधिक काल तक जीवन रक्षक प्रणाली पर रख गया| उनकी दया मृत्यु याचिका को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायलय ने ख़ारिज किया था| ऐसे ही बहुचर्चित मामलों में अमरीका की टेरी शियावो का केस रहा| 27वर्षीय टेरी दिल का दौरा पड़ने से कोमा में चली गयी| उनकी दया मृत्यु हेतु फ्लोरिडा की अदालत ने खाना खिलने वाली नाली हटाने का आदेश दिया, तो मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ गया| और तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने उन्हें जिंदा रखने हेतु कानून लाने की पहल की|
ऐसे ही वर्ष 1960 में 21वर्षीय अमेरिकन करेन क्वीनलेन जो काफी समय से स्थायी कोमा में थी, के माता-पिता उनका वेंटीलेटर हटाये जाने का केस जीत गये थे| इस जीत ने पूरे अमेरिका में मौत के अधिकार पर बहस छेड़ दी थी| स्पेन के रेमोन सैनपेद्रो जिनका गर्दन के नीचे का पूरा शरीर लकवाग्रस्त था, उन्होंने स्वयं आत्मदाह हेतु 29वर्ष तक लड़ाई लड़ी और मुक़दमा हार गये| 1998 में वह कई लोगों को जुटा के खुद को ज़हर देने में सफल रहे| इस प्रकार के तमाम मामले पूरे विश्व में इच्छामृत्यु के विवाद को बल देते रहे है|

लम्बी लड़ाई
वर्ष 2005 में इंडियन सोसाइटी ऑफ़ क्रिटिकल केयर मेडिसिन द्वारा ‘एंड ऑफ़ लाइफ’ विषयक एक सेमिनार कराया गया, जिसमे तत्कालीन कानून मंत्री श्री एच.आर.भरद्वाज ने इच्छा मृत्यु हेतु अपनी सहमति जताई और विधि आयोग से इस मुद्दे पर अध्ययन करने की अपेक्षा व्यक्त की| विधि आयोग ने 2006 में एक्टिव यूथेनेसिया हेतु एक कानून मसौदा पेश किया जिसके अंतर्गत उच्च न्यायलय यूथेनेसिया की याचिका पर विशेषज्ञों की राय पर फैसला ले सके|
अरुणा शानबाग को दयामृत्यु देने हेतु पिंकी वीरानी की याचिका पर उच्चतम न्यायलय ने वर्ष 2009 में नोटिस जारी किया और वर्ष 2011 में उच्चतम न्यायलय ने इस मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित किया| इसी वर्ष उच्चतम न्यायलय ने एक्टिव यूथेनेसिया को अनुमति प्रदान की और हत्या के प्रयास के अपराध हेतु दिशानिर्देश जारी किये| एक्टिव यूथेनेसिया के दुरूपयोग अनुमानित करते हुए इस फैसले का देश में विरोध हुआ, और एक्टिव के बजाय पैसिव यूथेनेसिया हेतु मांग हुई| 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया की NGO कॉमन कॉज की याचिका को संविधान पीठ में भेज दिया था| इस माह उच्चतम न्यायलय ने ‘लिविंग विल’ को मान्यता देते हुए पैसिव यूथेनेसिया को स्वीकृति दी| यह एक ऐतिहासिक फैसला है|

क्या है पैसिव यूथेनेसिया?
पैसिव यूथेनेसिया के अंतर्गत लाइलाज रोग से ग्रसित मरीज़ से जीवन रक्षण प्रणाली हटा लिया जाता है ताकि वह प्राकृतिक मृत्यु प्राप्त कर सके| अथवा मरीज़ की दवाएं बंद कर दी जाती है या फिर खाने-पीने की कृतिम व्यवस्था बंद कर दी जाती है| उच्चतम न्यायलय ने पैसिव यूथेनेसिया हेतु एडवांस्ड मेडिकल डायरेक्टिव का प्रावधान करते हुए – ‘लिविंग विल’ प्रावधान रखा है| कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छामृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को मान्यता देते हुए कुछ दिशा-निर्देशों के साथ इच्छामृत्यु की  इजाजत दी|
'लिविंग विल' एक लिखित दस्तावेज होगा जिसमें मरीज यह निर्देश देगा कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए| इच्छामृत्यु हेतु वसीहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज हो जिसमें दो स्वतंत्र गवाह भी शामिल होने चाहिए| हालाकि न्यायलय ने राइट टू लाइफ में गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार में शामिल होने के बिंदु से इनकार किया है और गरिमापूर्ण मृत्यु पीड़ा रहित होने को मान्यता दी है|
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निष्कर्ष
इस विषय पर फिलहाल केंद्र सरकार के सुझाव और संसद में विधेयक अपेक्षित है| भारत जैसे बहुवचनिये समाज में इच्छामृत्यु पर समन्वय बनाना मुश्किल है| धार्मिक तौर पर सभी समाजों में लगभग इच्छामृत्यु को पाप माना जता है| मार्च 13, 2018 को देवबंद के उलेमाओं ने इच्छामृत्यु को इस्लाम में हरम बताया है और उच्चतम न्यायलय को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की है| साथ ही इससे बुजुर्गों को बोझ मानने की प्रवत्ति को बल मिलेगा ऐसा भी चिंतन है|
दूसरी तरफ यूथेनेसिया की अनुमति से भारत में मृत्यु की गुणवत्ता में सुधार होना भी अनुमानित है| क्वालिटी ऑफ़ डेथ इंडेक्स पर भारत वर्ष 2015 में 80 देशों में 67वें स्थान पर रहा और 100 में से मात्र 26.8 अंक स्कोर कर पाया[2]| इच्छामृत्यु के पक्ष में यह बिंदु रखा जाता है की लाइलाज रोग से ग्रसित रोगी से स्वास्थ्य व्यवस्था को मुक्त कर अन्य रोगियों को मुहैया कराया जा सकता है| इससे लाइलाज रोग से पीडित रोगी को भी असहनीय पीड़ा से मुक्ति और इच्छा से गरिमायी मृत्यु प्राप्त होगी| इस फैसले को भारत में अभी भी परिपक्व होने में समय लगेगा|


○khyati (First published in Hindi Vivek, April 2018 Issue)



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